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जलझूलनी एकादशी का उत्सव : आत्मा का प्रत्यारोपण …

 

 

 

न्यूज नजर : वह सभ्यता और संस्कृति काल के गाल में समा गई जहां एक विज्ञान इतना उन्नत था कि दुर्लभ से दुर्लभ कार्य कुछ ही क्षणों में हो जाता था। आज का विज्ञान भले ही लुभावनी कथाएं समझे लेकिन फिर भी उन्हीं कथाओं के आधारभूत सिद्धांतों को मान अपनी परिकल्पना स्थापित कर एक परिणाम निकाल उसे स्थापित करता है।


सदियों पुरानी कथाओं पर हम टिप्पणी करते हुए तुरंत नकार देते हैं कि ये सब अंध विश्वास है और आस्था के धरातल पर हम सब नतमस्तक हो जाते हैं। ये दोहरे मापदंड फिर भी सर्वत्र मानव की संस्कृति में ही पाये जाते हैं।

भंवरलाल
ज्योतिषाचार्य एवं संस्थापक,
जोगणिया धाम पुष्कर

पहले का व्यक्ति हवा में उड कर पलक झपकते ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाता था। एक स्थान पर बैठा व्यक्ति कही भी बैठें व्यक्तिको अपनी सूचना का सम्प्रेषण कर देता था ।अपना रूप तरह-तरहसें बदल लेता था। बीमार व्यक्ति को बिना ओषधि के रोग मुक्त कर देता था ।
आज वो संस्कृति जिन्दा नहीं है और लोप हो चुकी है जहां पुरुष को भी महिला और महिलाओं को पुरुष बना दिया जाता। शरीर का अंग खराब होने पर प्रत्यारोपण कर दिया जाता लेकिन आज ये सब बातें एक मूर्ख की बातें मान हंसी उड़ाई जाती है।

आज का विज्ञान भी इन्ही उपरिकल्पना को मान कर ही काम करता है ।विज्ञान भले ही हार्ट का ट्रांसप्लांट कर सकता है जीवित व्यक्ति में लेकिन मृत हो जानें के बाद ऐसा नहीं कर सकता जबकि आस्था के विज्ञान में हम संजीवनी बूटी से व्यक्ति को जिन्दा कर सकते हैं।


यौवनाश्रव के पुत्र मान्धाता का जन्म उनके पिता की कुक्षि से हुआ। इसका कारण, कि यौवनाश्रव के संतान नहीं होने पर ऋषियों ने एक यज्ञ करवाया और उस यज्ञ का अभिमंत्रित जल गलती से यौवनाश्रव पी गये और उनके पेट की दाहिनी कुक्षि को काट कर बच्चे को निकाला। बच्चा जब रोने लगा तो मंत्री गण कहने लगे अब इसे कौन दूध पिलाएगा।

 

इतने में वहां देवराज इन्द्र आये और उन्होंने बच्चे के मुंह में अंगुली डालकर कहा मां- धाता अर्थात मैं इसकी रक्षा करूंगा और वो बालक पोराणिक इतिहास में मान्धाता के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो श्री राम के पूर्वज थे।

मान्धाता के राज्य में तीन वर्ष लगातार अकाल पड़ा तब ऋषियों के कहने पर उन्होंने भगवान नारायण की पूजा की तथा उत्सव मनाया ओर बादलों के रूप में नारायण धरती पर बरसे ओर राज्य में अकाल खत्म हुआ। वह दिन भी भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी का था ।
अतः उस दिन से ही जलझूलनी एकादशी का उत्सव मनाया जाने लगा और आज तक। भले ही विज्ञान इन कथाओं को अंधविश्वास माने लेकिन अति प्राचीन विज्ञान के विश्वास आज भी जिन्दा है।

 

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