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आज हलषष्ठी व्रत : एक दिन न खाएं खेत में उगी सब्जी और अनाज

 

न्यूज नजर : भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम जी के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में श्रद्धालु हलषष्ठी व्रत रखते हैं। इस दिन खेत में उगी सब्जी और अनाज खाने से परहेज रखा जाता है।

इस व्रत को कई नामों से जाना जाता है, जैसे हलषष्ठी, ललई छठ या हरछठ। यह पर्व हर साल भादो महीना के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। भगवान बलराम का प्रधान शस्त्र हल और मूसल हैं। इसी कारण उन्हें ‘हलधर’ भी कहा जाता है।

यही कारण है कि ‘हलषष्ठी‘ के दिन खेत में उगे हुए या हल से जोत कर उगाए गए अनाज और सब्जियों को खाने से मना किया जाता है। हलषष्ठी’ व्रत में महुआ के दातुन से दांत साफ किया जाता है। शाम के समय पूजा के लिए व्रती मालिन हरछठ बनाकर लाती हैं।

इसके बाद झरबेरी, कुश और पलाश की एक-एक डालियां एक साथ बांधी जाती है। उसके बाद हरछठ को वहीं पर लगा दिया जाता है। सबसे पहले कच्चे जनेउ का सूतहरछठ को पहनाया जाता है। उसके बाद फल आदि का प्रसाद चढ़ाने के बाद कथा सुनी जाती है।

हलषष्ठी’ के दिन भगवान बलराम का जन्मोत्सव होने के कारण खेत में उगे हुए या हल जोत कर उगाए गए अनाज और सब्जियों को का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि हल बलराम जी का प्रमुख शस्त्र है। साथ ही इस दिन गाय का दूध और इससे बने वस्तु का सेवन मनाही है।

‘हलषष्ठी’ के दिन व्रती तालाब में उगे पसही/तिन्नी का चावल या महुए का लाटा बनाकर सेवन करती हैं। इस दिन व्रती भैंस (जिसका बच्चा हो) का दूध, घी और दही इस्तेमाल करती हैं।

हलषष्ठी व्रत की कथा

प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा।

यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हलषष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।

उधर, जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया।

इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।

कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है।

वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए।

ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।

बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।

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