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गण्ड मूल नक्षत्र : बदलते परिवेश में फलित ज्योतिष के सिद्धांत

अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्मे गोस्वामी तुलसीदास

ज्योतिष जगत में गंड मूल नक्षत्रों का विशेष प्रभाव माना जाता है। अश्विनी, आशलेषा, मघा, जेष्ठा, मूल और रेवती यदि नक्षत्रों में बालक जन्म देता है तो उसे गण्ड मूल नक्षत्र में जन्म बालक मानते हैं।

भंवरलाल
ज्योतिषाचार्य एवं संस्थापक,
जोगणिया धाम पुष्कर

ज्योति शास्त्र में ऐसी मानता है कि इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाला माल माता -पिता, कुल और अपने सभी का नाश करने वाला होता है। यहां यह भी मान्यता है कि यदि शरीर नाश होने से बच जाता है तो अपार धन, वाहन का स्वामी वह बालक बन जाता है। इन गंड मूल नक्षत्र में से भी विशेष रूप से जेष्ठा नक्षत्र की अंतिम चार घटी तथा मतन्तर से मूल नक्षत्र की चार घटी विशेष आधी, अमुक्त मूल नक्षत्र कहलाती है। यदि इस अमुक्त मुल नक्षत्र में बालक का जन्म होता है ज्योतिष शास्त्र में ऐसी मानता है कि उस बालक का परित्याग कर दे या 8 वर्ष, असमर्थ हो तो 6 मास अथवा 27 दिन तक पिता का मुख न देखें।

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म इसी अमुत्तक मूल नक्षत्र में माना गया है। ऐसे प्रमाण मिलते है कि गौस्वामी तुलसीदास का जन्म 1554 ई. में हुआ। जन्म तिथि श्रावन शुक्ल सप्तमी थी।उस काल में ज्योतिष जगत के फलित सूत्रों पर इतना अमल होता था। यह बात तुलसीदास के जन्म से प्रमाणित होती है।

तुलसीदास जी का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ इस कारण तुलसीदास जी के माता- पिता ने जन्मते बालक को त्याग दिया।इसके बाद वे संत नर हरिदास के आश्रम पहुंचे, वहीं पर उनका लालन पालन किया गया और शिक्षा दीक्षा हुई।
तुलसीदास के जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति इस प्रकार थी।
तुला राशि का लग्न तथा धनु राशि मे राहू चन्द्रमा की स्थिति कुंभ राशि मे गुरू ग्रह मिथुन राशिमें केतु व कर्क राशि मे मंगल ग्रह तथा सिंह राशि मे सूर्य बुध व शुक्र ग्रह भ्रमण कर रहे थे।

गोस्वामी तुलसीदास की जन्म कालीन ग्रह स्थितियों का यदि विश्लेषण किया जाय तो स्थिति स्पष्ट होती है कि लग्नेश और अष्टमेश शुक्र भाग्येश व द्वादशेश बुध व लाभेश सूर्य के साथ ग्यारहवें भाव में बैठे हैं। जहां गुरु की सातवी दृष्टि पड़ रही है तो राहु की भी नवीं दृष्टि शुक्र, बुध, सूर्य पड़ रही है। अतः लग्नेश पर द्वादशेश बुध, षष्ठेश,गुरु तथा राहु का दूषित प्रभाव पड़ रहा है।

लग्नेश के अतिरिक्त लग्न पर भी नीचस्थ राशि में बैठे मंगल, नवें स्थान में बैठे केतु पंचम स्थान में बैठे गुरु का दूषित प्रभाव पड़ रहा है। कुण्डली में माता का स्वामी शनि 12वें तथा पिता का स्वामी चंद्र राहु के साथ दूषित प्रबल प्ररित्यक्त योग बना रहा है, अतः इन्हीं ग्रहों के प्रभाव से उन्हें माता-पिता ने त्याग दिया। लग्नेश शुभ ग्रह बुध के साथ लाभ स्थान में होने से बालारिष्ट योग से बच गये तथा इन्हें नरसिंह दास का आश्रम मिला ।
ज्योतिष के वराह सिद्धांतो के अनुसार तुलसीदास जी के जन्म कालीन शुभ ग्रह के नैसर्गिक प्रभाव में गुरु, सूर्य,बुध, शुक्र की युक्ति ने विशेष रूप से कार्य किया। पंचम भाव में गुरु की उपस्थिति ने अपने नैसृगिक गुणों से उन्हें वैराग्य, दर्शन,बुद्धिपूर्ण प्रस्तुति, साहित्य चिंतन व लेखन की ओर प्रेरित किया तो सूर्य बुध और शुक्र की युति ने उन्नत साहित्यक कार्य तो करवाया। साथ ही सौन्दर्य, ओजस्विता तथा माधुरी को साहित्य में भरवाया तो पंचमेश शनि ने गहन चिंतन दर्शन से वेद, पुराण दर्शन साहित्य का गंभीर रुप से अध्ययन करवाया।

रामचरितमानस जैसे महान ग्रंथ की रचना करवायी। अष्टमेश, शुक्र पापकर्तरी योग से मंगल और शनि के बीच जन्म कालीन होने से तुलसीदास जी की साहित्यिक रचना मृत्यु उपरांत ही प्रसिद्ध ले पाई। उससे पूर्व उन्हें भक्ति ज्ञान, मानव कल्याण के कर्ता के रूप में ही जाना जाता था। पत्नी स्थान का स्वामी अर्थात सप्तमेश अपनी नीचस्थ राशि कर्क में बैठकर लग्न को देख रहा है जो पत्नी से प्रेम की पराकाष्ठा पर है जो कुछ भी करने को तत्पर है अर्थात् पत्नी से अत्यधिक प्रेम व लगाओ था लेकिन उस राशि में मंगल बैठा है उसका अधिपति भी राहु की कैद में है तथा राहु भी सप्तम स्थान पर दृष्टि डाल पत्नी से अलगाव के पूर्ण बना रहा है।

यहां ज्योतिषीय विश्लेषण से स्पष्ट है सप्तम भाव, भावेश पर अशुभ प्रभाव है कोई भी शुभ ग्रह दाम्पत्य जीवन को सुधार नहीं पा रहा है। विवाह के मैं नैसर्गिक ग्रह गुरु और शुक्र दोनों ही दूषित है। इस कारण गोस्वामी तुलसीदास का पत्नी मोह भंग हुआ और वे पूर्ण रुप से भक्ति के मार्ग पर आ गये।
वर्तमान परिपेक्ष्य में हम इन प्राचीन ज्योतिष सूत्र को देखते हे तो हमें ज्ञात होता है कि हजारों बालक अमुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेते हैं, लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी की तरह उन्हें माता पिता द्वारा त्यागा नहीं जाता बल्कि ज्योतिष विद्वान, ग्रह नक्षत्र के शांति के उपाय बता कर इस पीड़ा से निजात दिलाने के सुझाव देते हैं। वास्तव में ज्योतिष विज्ञान फल की सूचना देने वाला विज्ञान है,फलदाई विज्ञान नही। ज्योतिष अध्ययन मात्र आने वाले शुभ व अशुभ संकेत को बताता है उसी के आधार पर योजना बनाकर भावी घटना के शुभ को बढाया जा सकता है तथा अशुभ को कम किया जा सकता है। स्थिति स्पष्ट है कि वर्तमान परिवेश में ज्योतिष के प्राचीन सूत्रों का फलित यथावत लागू नहीं हो पाता चाहे हम शास्त्रों की कितनी भी दलील दे। हम एक दो भविष्यवाणी की सफलता पर भले ही प्रसन्न हो जाते हैं लेकिन हमारी 80 प्रतिशत गलत भविष्यवाणियों की दशा में हम मौन धारण कर लेते हैं या विधि के विधान को बड़ा बताकर, आत्म संतुष्टि कर लेते हैं लेकिन अनुसंधान खोज, नहीं करते।
अतः वर्तमान परिपेक्ष में ज्योतिष के सिद्धांत पर गहन चिंतन, मनन तथा स्थान, काल और परिस्थितियों को देखकर भविष्य वाणी किये जाने की नितान्त आवश्यकता है।

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