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विश्वास की रक्षा को संजोते संवारते बंधन

 

न्यूज नजर : प्रकृति जगत के प्राणियों की रक्षा करती हुई जल हवा व वनस्पतियों का निर्माण कर सबको जीवित रखती है, उन्हें संजोये रखती है संवारती है और संवर्धित करती है।

भंवरलाल
ज्योतिषाचार्य एवं संस्थापक,
जोगणिया धाम पुष्कर

प्रकृति की नीति का यह अघोषित बन्धन ही जीवों की रक्षा करता है और इसी के कारण आस्तिक जन प्रकृति को भगवान मानते हैं तो वास्तविकता वादी प्रकृति के गुण धर्म के रहस्यों की खोज कर इसे विज्ञान के रूप में मानता है। धर्म और विज्ञान जो भी हो अंत में यह दोनों ही प्रकृति के विश्वास की रक्षा में ही संवरते है और संवर्धित होते हैं।

धर्म और विज्ञान दोनों ही सभ्यता और संस्कृति को अपने-अपने विश्वास के धागों से बांधे रखने का प्रयास करते हैं और इन्ही विश्वासों पर सभ्यता और संस्कृति अपने अपने आप को संजोये रखती है संवारती है और संवर्धित करती हैं ।


सभ्यता और संस्कृति भी सदा सामाजिक सम्बन्धों की आधारशिला पर ही खड़ी होती है और सामाजिक सम्बन्धों का ताना बाना ही इसको पुष्ट करता है। इन सम्बन्धों मे आस्था विश्वास श्रद्धा मान्यता आदि का प्रमुख स्थान होता है और इन्ही विश्वासों पर भावी अनिष्ट की आशंका का मुकाबला एकजुट होकर किया जाता है और हर संकट और चुनौतियां पर विजय प्राप्त की जाती हैं। विश्वास की रक्षा के यह बन्धन ही रक्षाबंधन बन कर समाज को संगठित और सुरक्षित करते हैं।

प्रकृति का हर धन जब तक रक्षा के सूत्रों में नहीं बंधता है तो प्रकृति उस धन के अभाव में पंगु हो जाती है और जीव व जगत को अपने गुणों से वंचित कर देती हैं और जो भावी अनिष्टो से रक्षा नहीं हो पाती तथा अपार धन जन की हानि हो जाती है। प्रकृति के हर धन की तरह समाज की अभौतिक ओर भौतिक संस्कृति के धन को भी सुरक्षित रखना आवश्यक है।

अभौतिक संस्कृति के मानदंडों मूल्यों और विश्वासों के जो धन बंद है हमारे सम्बन्धों के रूप में उनकी रक्षा के बिना सामाजिक संगठन कभी भी मजबूत नहीं बन सकते। उस बंद धन की रक्षा ही रक्षा बंधन है। चाहे ये जन्म के रिश्ते हो या धर्म के रिश्ते हो।

संत जन कहते हैं कि हे मानव ये सामाजिक सम्बन्धों का ताना बाना ही सामाजिक संगठनों का निर्माण करता है और उसी पर धर्म ओर विज्ञान खडे हो कर सबको रक्षा मे बंधे रखने के आदेश देता है।
इसलिए हे मानव तू विश्वास रूपी छुपे धन की रक्षा कर और सामाजिक ढांचे को मजबूत बना ताकि सभ्यता और संस्कृति का हर धन सुरक्षित रहे। रिश्तों के बंधन को तू प्रकृति का जमा कोष मान क्योंकि इस जमा कोष को कोई भी व्यवस्था नहीं छीन सकती।

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