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स्पेशल स्टोरी : तब सिनेमाघरों में तिरंगा भी फहराया जाता था

 

 

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सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 

मुम्बई। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब देश के हर सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान होने और सिनेमाघरों में मौजूद सभी दर्शकों को इसके सम्मान में खड़े होने के निर्देश ने देश भर में लोगों का कौतूहल बढ़ा दिया है। इस फैसले का अपना एक इतिहास रहा है।

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देश की आजादी से पहले तक ब्रिटिश राज में सिनेमाघरों से लेकर रंगमंच के थिएटरों तक में शो शुरू होने से पहले ब्रिटिश राजधुन को सम्मान के लिए बजाया जाता था। जब देश आजाद हुआ, तो ये परंपरा लगभग बंद कर दी गई। देश का सिनेमाघर उस वक्त शुरुआती दौर में था और देश में सिनेमाघर भी ज्यादा नहीं थे। सिनेमाघरों के मुकाबले महानगरों के नाट्यघरों में ज्यादा दर्शक आया करते थे।

इतिहास के जानकार बताते हैं कि जनवरी 1961 में एक बार मुंबई में एक नाटक के दौरान तिरंगा फहराया गया तो दर्शक तिरंगे के सम्मान में खड़े हो गए, तो कुछ लोगों ने राष्ट्रगान गाना शुरू कर दिया।

नाटक खत्म हुआ, तो अगले दिन मुंबई की अदालत में एक वकील ने इस पर आपत्ति जताते हुए इसे राष्ट्रध्वज और देश का अपमान माना। काफी लंबे समय तक मामला अदालत में चलता रहा। हाईकोर्ट की इस दलील के बाद केस बंद हो गया कि राष्ट्रध्वज का सम्मान करना हम सबका कर्तव्य और जिम्मेदारी है लेकिन इसे संवैधानिक अधिकारों से जोड़ने से इनकार कर दिया। याचिका दायर करने वाले वकील के निधन के बाद मामला जस का तस रहा।

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1965 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की जीत के जश्न के दौरान अति उत्साही लोगों ने सिनेमाघरों में राष्ट्रीय ध्वज फहराया और जन गण मन भी गाया तो सभी ने तालियां बजाकर इस जोश-खरोश से लबरेज जज्बातों का स्वागत किया।

लेकिन जैसे जैसे जीत के जश्न का उत्साह मंद होता चला गया, ये रिवाज भी खत्म हो गया। 80 के दशक तक इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ। 80 में इंदिरा गांधी की सरकार केंदीय सत्ता में लौटी तो पहली बार केंद्र सरकार की ओर से सिनेमाघरों में न्यूजरील दिखाने के आदेश हुए।

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हालांकि सिनेमाघरों का संचालन संवैधानिक व्यवस्था के तहत राज्यों का विषय माना गया लेकिन केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय का दखल हुआ और दूरदर्शन शैली में सिनेमाघरों में न्यूजरील दिखाने का सिलसिला शुरू हुआ। ज्यादातर राज्यों में कांग्रेसी सरकारें थीं इसलिए किसी ने कहीं कोई आपत्ति नहीं की।

90 के दशक में पहली बार सितंबर 1995 में जब सार्वजनिक स्थानों से लेकर घरों पर तिरंगा फहराने को लेकर अदालती फैसला आया तो एक नई सुगबुगाहट शुरू हुई। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान होने का फरमान 2003 में महाराष्ट्र में सुनाया गया जब युवा कांग्रेस के आग्रह पर राज्य की कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने देशभक्ति का जज्बा पैदा करने की दलील को मंजूर करते हुए राज्य के सभी सिनेमाघरों को फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान को अनिवार्य रूप से दिखाने के आदेश जारी कर दिए। जो पूरे महाराष्ट्र में अभी तक जारी हैं।

महाराष्ट्र की सरकार के इस फैसले के दो साल बाद बिहार, और यूपी में हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में इसी आदेश का हवाला देते हुए याचिकाएं दायर की गईं लेकिन अदालतों ने उन याचिकाओं पर ध्यान नहीं दिया। 2008 में सुप्रीम कोर्ट में पहली बार ये मामला आया तो सर्वोच्च अदालत ने इसे राज्य सरकारों के अधिकारों से जोड़ते हुए कहा कि राज्य सरकार ही इसमें कोई फैसला करें।

2011 में एक और याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई जिसमें महाराष्ट्र सरकार के अादेश को संवैधानिक अधिकारों का हनन बताया गया, जब सिनेमाघरों में इस मुद्दे को लेकर आपसी मारपीट के कई किस्से सामने आए। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मामला जरूर माना, लेकिन संवैधानिक अधिकारों से जोड़ने से इनकार कर दिया।

उस वक्त भी सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि हर नागरिक को अपनी राष्ट्रीय पहचान पर गर्व होना चाहिए और सम्मान करना चाहिए। अब ये पहला मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश के बाद देश के हर सिनेमाघर में फिल्म शुरू होने से पहले जन गण मन.. का गान जरूरी हो जाएगा।

 

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