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शरीर रूपी सागर से अमृत निकालता है ‘योग’

 अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर शुभकामनाएं

न्यूज नजर : शरीर रूपी सागर में मंथन करता हुआ योग मन की चौदह मनोवृत्तियों से चौदह रत्न निकालता है और शरीर मन आत्मा को उस दिशा की ओर ले जाता है सभी में सकारात्मक सम्बन्ध बनता है।

भंवरलाल
ज्योतिषाचार्य एवं संस्थापक,
जोगणिया धाम पुष्कर

यह सकारात्मक सम्बन्ध शरीर की अन्त: ऊर्जा को बढाता है और शरीर नीरोगी बन कर अपने अंदर कार्य करने वाली साढे तीन करोड़ नाड़ियों को सुगति प्रदान करता है। यह साढे तीन करोड़ नाड़िया सुगमता से शरीर में काम करती हुईं खून, वायु और ऐसिड को थक्का नहीं बनने देती है, शरीर इन तीनों की क्लोटिंग से बचा रहता है।

विष रूपी नकारात्मक रत्न को योग शरीर में बैठी बुद्धि के माध्यम से ध्यान से धारण कर देता है तथा अमृत कलश के रत्न के रूप में निकली आन्तरिक ऊर्जा को योग शरीर को धारण करा देता है। इस विष और अमृत रत्न के तालमेल से सम्पूर्ण शरीर प्राण वायु रूपी ऊर्जा जिसे आत्मा कहा जाता है उससे पंच महाभूतों का अनुकूल संतुलन कर इस शरीर की वास्तु संरचना को बनाये रखता है।

  शरीर की चौदह मनोवृत्तियों को योग नियंत्रित करता है लेकिन इन मनोवृत्तियों के स्वामी मन पर योग आंशिक ही नियंत्रण कर पाता है क्योंकि इसका शरीर में भौतिक अस्तित्व नहीं होता है।

शरीर भले ही योग करने लग जाये पर मन भीड़ में भी वीरानों की तरह रहता है और मनोवृत्तियों के मथने से निकले उच्छेश्रवा घोड़ा रत्न को पा कर सदा ही उस पर सवारी करता रहता है। शरीर योग पूरा भी कर लेता है लेकिन मन उसे गंभीरता से नहीं लेता है और योग द्वारा शरीर मंथन से निकली लक्ष्मी रूपी रत्न को मायावी बन कर लेने में लगा रहता है। 

            शरीर रूपी सागर में योग रूपी मंथन के लिए मन की अनुकूलता का होना नितान्त परम आवश्यक है। इसलिए ध्यान के द्वारा मन को ही बांधना प्रथम आवश्यक है। फिर शरीर द्वारा की गई क्रिया शरीर के कई रस स्त्रोतों को बहाना शुरू करती है और अन्त में यह ध्यान और कर्म की ही श्रम साधना भक्ति योग के रूप में योग मंथन के चौदह रत्न प्राप्त कर शरीर को आनंद योग में भेज देती है।

मन बार-बार क्रोध रूपी नकारात्मक रत्न को निकालता है और एक श्रेष्ठ योगी भी इससे बच नहीं पाता है तथा श्राप जैसे शब्द जन्म लेते हैं। ठीक इस प्रकार मन जब अमृत कुंभ का आनंद लेता हुआ अति प्रसन्न हो जाता है तो वरदान जैसे शब्दों की उत्पत्ति होती है। इसलिए योग में प्रथम बुद्धि के सहारे मन को बांधना परम आवश्यक होता है।

              संतजन कहते हैं कि हे मानव प्रकृति जब जीवन को देती है तो जन्म से मृत्यु तक स्वयं जीवों से योग कराती है। अपने ऋतु चक्र से प्राणियों को उनकी अवस्था के अनुसार रहना सिखा देती है और सब कुछ करना सीखा देती है। यदि प्रकृति के इस योग को मानव नकारने लगता है तो वह उस प्राणी को नीरोगी नहीं रहने देतीं। 

        इसलिए हे मानव, हर ऋतु चक्र और अपनी अवस्था के अनुसार ही तू अपने काम को अंजाम दे। यही प्रकृति का योग है। इसलिए हे मानव समस्त योगी पुरुष योग के माध्यम से बुद्धि शरीर, मन और आत्मा को एक सकारात्मक धारा में बहा कर सकारात्मक सोच का निर्माण करवाते हैं और शरीर की आन्तरिक ऊर्जा से मन को अंदर से मजबूत बनवाते हैं।

इससे शरीर तो नीरोगी होगा ही, साथ में उन्नत सोच प्रकृति के वातावरण को सुरक्षित संरक्षित और संवर्धित करेगी।

प्रकृति अपना योग करती है प्राकृतिक क्रियाओं के माध्यम से । इसलिए प्रकृति की हर विरासत को सुरक्षित रख और संरक्षित कर ताकि हमारे शरीर का योग और प्रकृति के योग में एक धनात्मक सह सम्बन्ध बना रहे, क्योंकि हम भी इस प्रकृति के ही पिंड हैं और हमारे पिंड में ही प्रकृति है ।