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मां पाटेश्वरी मंदिर

बलरामपुर। उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले की तुलसीपुर तहसील क्षेत्र के सिरिया नदी के तट पर स्थित मां पाटेश्वरी देवीपाटन मन्दिर में अश्विन मास की शुक्ल पक्ष के पहले दिन नवरात्रि शुरू होते ही नेपाल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कोने-कोने से देवीभक्तों का आना शुरू हो जाता है।

अधिकांश देवीभक्त मंदिर परिसर में हिन्दू रीति-रिवाज के अनुसार विवाह, लग्न, यज्ञोपवीत संस्कार, मुंडन संस्कार भी सम्पन्न कराते हैं। साथ ही मनोकामना पूर्ण होने की प्रार्थना के साथ सूर्यकुंड में स्नान कर पेट के बल चलकर मांग के दर्शन करते हैं।

देश की 51 शक्तिपीठों में एक ऎतिहासिक देवीपाटन मंदिर में मां पाटेश्वरी के दर्शन के लिए नवरात्रि का बहुत महत्व है। यहां पर स्थापना काल से ही “अखण्ड ज्योति” प्रज्जवलित हो रही है।

मंदिर में जगदमाता मां पाटेश्वरी की भव्य प्रतिमा के साथ कूष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धीदात्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा और शैलपुत्री समेत नौ देवियों की प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं। इस गर्भगृह के शीर्ष पर कई रत्नजडित छतर और ताम्रपत्र पर दुर्गा सप्तशती अंकित है। मां पाटेश्वरी को विशेष रूप से “रोट” का प्रसाद चढाया जाता है।

मंदिर का इतिहास

मंदिर का इतिहास माता सती का दक्ष के हवनकुंड में दहन की कथा से जुड़ा हुआ है। देवीपाटन का उल्लेख स्कन्दतालिका, देवीभागवत, शिव चरित, तांत्रिक ग्रंथ और महापुराणों में किया गया है। पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति के यहां अनुष्ठान समारोह में अपने पति परमेश्वर इष्टदेव पति देवाधिदेव महादेव को स्थान व न्यौता न दिये जाने से क्षुब्ध सती ने यज्ञ की ज्वाला में अपने प्राणों की आहूति दे दी।

सती के मृत शरीर को कंधों पर रखकर अत्यंत ज्वालामुखी के समान क्रोधित भगवान शंकर तांडव करने लगे। तभी महादेव के प्रकोप से उत्पन्न व्यवधान से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती मां के शव को सुदर्शन चक्र से कई खण्डों में विच्छेदित कर दिया। इससे खण्डित मां सती का बांया स्कन्द पाटम्बर समेत देवीपाटन मंदिर वाले स्थान पर आ गिरा। उसी समय से इस पवित्र स्थान का नाम मां पाटेश्वरी देवीपाटन मंदिर पडा।

लाखों नेपाली योगी अनुयायी आते

इसके अलावा त्रेतायुग में मां जानकी का पातालगमन भी देवीपाटन में ही हुआ। उस समय की सुरंग यहां आज भी गर्भगृह में स्थित है। सूर्यकुण्ड की मान्यताओं में महाभारत काल में सूर्यपुत्र धनुर्धर महारथी कर्ण इसी कुण्ड में स्नान कर भगवान परशुराम से शिक्षा ग्रहण करते थे।

यहां गोरक्षपीठाधीश्वर नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक बाबा पीर रतननाथ की स्मृति में एक दरीचा है। इसके दर्शन के लिए नेपाल के दांग जिले से लाखों नेपाली योगी अनुयायी यहां आते हैं। उनका दर्शन मुख्य रूप से नवरात्रि के पंचमी के दिन से शुरू होता है।