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अगर अंह त्याग दें तो…

अ से अपनत्व और अ से अहंकार। बिल्कुल दो विरोधी गुण। जहां अपनत्व हो वहां अहंकार नहीं हो सकता और जहां अहंकार हो वहां अपनत्व की बात बेमानी है। जब तक मन में अहंकार की अकडऩ है तब तक अपनत्व अंगड़ाई नहीं ले सकता।

अगर बात समाज के परिपेक्ष्य में करें तो अपनत्व ही वह मुख्य धुरी है जो हमें आपस में एक-दूसरे से जोड़ती है। हम किसी बस या टे्रन में किसी अनजान यात्री के साथ सफर कर रहे हों और बात ही बात में जैसे ही यह पता लगे कि सहयात्री तो हमारे ही समाज का है तो अचानक हमारे व्यवहार और बोलचाल के तरीके में अप्रत्याक्षित बदलाव आ जाता है। यही अपनत्व है।

आपसी संबंध कारोबारी हो या राजनीतिक, किसी संगठन की वजह से आपस में जुड़े हों या किसी और कारण से, आपसी संबंधों में कहीं ना कहीं स्वार्थ हो सकता है लेकिन जब समाज के नाते आपस में जुड़ते हैं तो स्वार्थ गौण हो जाता है। वहां सिर्फ परिवार और समाज की मुख्य होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आपसी पारिवारिक संबंधों का विशाल रूप ही समाज है। ऐसे में अपनत्व और सम्मान के बीच अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं।

मैं यह तो नहीं कहता कि हर  व्यक्ति अहंकारी है मगर यह जरूर कहता हूं कि अहंकार मानव जीवन की एक प्रवृत्ति है जिससे चाहकर भी कोई मानव अछूता नहीं रह सकता। कोशिश यह होनी चाहिए कि इस कमजोरी से छुटकारा पाएं। अगर मन से अहंका र का अंधियारा छंट गया तो फिर हर तरफ अपनत्व का उजाला होगा। इस उजाले में हमारे आपसी संबंध और भी निखरेंगे, इसी कामना के साथ जय नामदेव।
-महावीर मेड़तवाल, अजमेर