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क्या नामदेव समाज के प्रत्येक सुधार को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ेगा ?

pritesh rathour

आदरणीय भाईओं व हितचिंतक गण,
जय श्री नामदेवजी….
कई दिनों से मेरे मनोमस्तिष्क में एक प्रश्न के प्रति समुद्रमंथन चलता है कि –  सामाजिक मंच पर प्रत्येक अच्छे विचार का भी क्यों विरोध? प्रत्येक विचार के समक्ष दो गूट क्यों ? सत्य व समाजहित के विचार का भी विरोध क्यों ? और विरोध भी वही सदस्य करते है जो समाज-सुधार के प्रखर हिमायती व सच्चे समाजसेवी है ! इसीलिए यह एक गूढ, गहन व विचारणीय प्रश्न है, जिसके हर पहलु का अभ्यास समाज के हित में अत्यावश्यक प्रतीत होता है।
सामान्यतः ऐसा कहा जाता है कि विरोध के लिए कोई ठोस कारण देने की जरूर नहीं पड़ती, मगर सत्य तो खुद सत्य को ही साबित करना पड़ता है। इसका मतलब यह नहीं कि सत्य का विरोध करनेवाले समाजसुधार के विरोधी हैं। इस विचार के समर्थन में एक बोधकथा उदाहरण के तौर पर देने का विनम्र प्रयास करता हूँ। “दो दोस्त एक आम के बगीचे से गुज़र रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ बच्चे एक आम के पेड़ के नीचे खड़े होकर पत्थर फेंक कर आम तोड़ रहे हैं। यह देखकर एक दोस्त बोला कि –  देखो कितना बुरा समय आ गया कि पेड़ भी पत्थर खाए बिना आम नहीं दे रहा है। तभी दूसरे दोस्त ने कहा – नहीं समय बहूत अच्छा है दोस्त, फर्क तेरे नजरिये में है। मेरा नजरिया कहता है कि पत्थर खाने के बाद भी पेड़ आम दे रहा है।”
सोच अच्छी हो, इरादे प्रबल हो, नीयत नेक हो पर अगर नजरिया गलत हो तो भी परिणाम बदल सकता है। ऐसा ही कुछ समाजसेवा के क्षेत्र में भी है। प्रत्येक सेवक समाजहित के लिए कुछ न कुछ सकारात्मक करने को तत्पर है। उसकी नीयत साफ व इरादे नेक होने के बावजूद भी प्रत्येक समाजसेवी की कार्यपद्धति व भावनाओं को पूर्णतः न समझ पाने की वजह से विरोध की प्रामाणिक भूल हो जाती है एवं कई मुश्किल का सामना करना पड़ता है। कहीं कहीं अन्य के विचार अपने पर थोपने की गलतफहमी भी विरोध के दावानल को जन्म देती है। विरोध का शब्द किसी को दुःख व ठेस पहूँचाने हेतु नहीं, बल्कि सत्य के विरोध के प्रति रोष भी हो सकता है। तो क्या श्री नामदेव समाज के प्रत्येक सुधार को विरोध की अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ेगा ? उसका कोई उपाय नहीं है ?

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इतिहास के अभ्यासी एवं प्राध्यापक होने की वजह से सुधारप्रक्रिया के पूर्वाभिमूखरूप कूछ प्रश्नपहलु मेरे मन में उभरे, जो आपके समक्ष रखने का विनम्र प्रयास करता हूँ…
1. क्या प्रस्तुत सुधार की गति आवश्यकता से ज्यादा तो नहीं,  जो समाज के बूजुर्ग वर्ग के दिल को ठेस पहूँचाती हो ?
2. क्या हमने प्रस्तुत सुधार के लिए अत्यावश्यक हर पहलु का विस्तृत अभ्यास किया है ?
3. क्या प्रस्तुत सुधार समाज के सभी वर्गों के लिए आशिर्वादरूप रहेंगे ?
4. क्या प्रस्तुत सुधार निकटतम भविष्य में अानेवाले सामाजिक परिवर्तन से सुसंगत है ?
5. क्या सुधार की दिशा ऐसी नहीं हो सकती कि हमारे पुरखों के विचारों का उल्लंघन भी न हों और आधुनिक तत्त्वों का समन्वय भी हो जाए ?
6. क्या हमने अतित में हुए सुधार, उनसे समाज में फलश्रुति, विरोघ का दावानल एवं वास्तविक परिणाम के बारे में पूर्णतः सौचा है ?
7. अगर हमारे प्रचलित सनातन रिवाजों में से समय से प्राचीन कूछ रूढिओं का निकाल एवं कूछ नये व अाधुनिक तत्त्वों को सम्मिलित किया जाए तो इच्छित सुधार हो सकते है ?
8. कई सालों से समाज के हर क्षेत्र में घुमकर, व्यक्ति- व्यक्ति की विचारधारा को करीब से समझकर, समाजसेवा के प्रति अपनी अात्मा न्योछावर करनेवाले समाजसेवीओं के अनुभव से योग्य परामर्श लिया है ?
9. सुधार परिप्रेक्ष्य के सभी पहलु का सूक्ष्म अध्ययन के बाद वास्तविक, स्थितिस्थापक, अत्याधुनिक एवं सुद्दढ विचार परिदर्शित होता है ?
10. क्या प्रस्तुत सुधार विचार में मतभेद एवं विरोध की स्वाभाविक संभावनाअों को न्यूनतम करने के लिए विचार-प्रस्तुति की भाषा व शैली में आदर का योग्य अनुप्रयोग एवं संभवित विरोध के पुख्त व विश्वसनीय निराकरण के पहलु का पूर्वाभ्यास किया है ?
अगर प्रत्येक सुधार समाज के सामने रखने से पूर्व उसके हर पहलु को सुधार-विषय के साथ ही प्रस्तुत किया जाए, तो समाज के सभी सदस्य समग्र योजना के दोनों पहलु के प्रति अपनी निजी सोच बना सकते हैं। इससे मतभेद व विरोध की संभावना कम होगी और तंदुरस्त व मूक्त चर्चा का लाभ मिलेगा।
मेरी यह व्यक्तिगत सोच के प्रति आपकी टिप्पणीयाँ, परामर्श, सुझाव एवं दिशानिर्देश शिरोमान्य व आवकार्य है।
✍  डॉ. प्रीतेश सुरेशचंद्र राठोड
मोबाईल – 094081 56082

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