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श्रद्धा पूजती रही, अहंकार जलता रहा…

अहंकार के आभूषण पहन कर व्यक्ति संस्कार व संस्कृति को ठोकर मार जब आगे निकलने लगता है तो काल के पंजे का एक चांटा पड़ता है।… फिर भी वो रावण की तरह अपने कुनबे का नाश करा कर भी चुप नहीं बैठता और कुछ ऐसे ठुकराए हुए और ठोकर खाए हुए विषैलों सांपों की फौज बनाकर काल को ललकारता है और चारों तरफ से उसे घेरने के लिए फुफकारने लगता है।
इतने में एक तूफान आता है वो अंहकार रूपी उन सांपो को उड़ा कर ले जाता है ओर इतफाक से उन्हे शमशान में जलती चिता मे डाल देता है ओर वो जलती चिता उन चारों सापों को उनके अंहकार के साथ उन्हे भी जला कर भस्म कर देती है ।
सत युग, त्रेता, द्वापर और कलयुग इन चारों युगों के अहंकारी सांपो को हर युग में जलना पडता है फिर भी वो अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते। ईर्ष्या जलन विरोध ओर बदला लेने की भावना ही अहंकार के पतन का कारण बन जाती है । चाहे कोई कितना भी बलशाली क्यों ना हो।
श्रद्धा और आस्था जहां होती हैं वहां भगवान की तरह इंसान पूजे जाते हैं और जहां कपट लोभ-लालच के सोदे होते हैं वहां शैतान ही पूजें जाते हैं ।इस शैतानी दुनिया के लोग सुधारक का जामा पहन अपनी शराफत दिखाते हैं, हित अपना साध कर,साधुओं को आंखें दिखा महापुरुषों के आईने दिखाते हैं ।


इन छद्म वेषधारी की संगत से भगवान तो क्या शैतान भी पनाह मांगने लग जाते हैं और शैतान भी इनके जर्जर अंत के लिए इनको लात मार देते हैं रावण की तरह अपने कुनबे का भी नाश ये अपने नाश के साथ करवा लेते है ।
संत जन कहते हैं कि हे मानव तू इन नुगरे व्यक्तियों की संगत मत कर वरना तेरे लांछन लग जायेंगे क्योंकि एक नुगरे व्यक्ति की पीठ पर लाखों पापियों का भार होता है । इन्हे तू सोने के जेवर आभूषण की तरंह धारण मत कर क्यो कि यह पीतल भी नही है ।ये अहंकार के भांडे शमशान घाट में रखने लायक भी नहीं है । अपने कर्म में लग और जीवन का लुत्फ़ उठा।
-ज्योतिषाचार्य भंवरलाल,

संस्थापक, जोगणिया धाम पुष्कर

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